Thursday, November 17, 2011

माँ के नाम

माँ ममत्व ,धेर्य और वात्सल्य की प्रतिमूर्ति होती है |
माँ का धेर्य और सयम हम जब से होश सँभालते हैं तबसे , बल्कि जीवन पर्यंत ही हमें प्रभावित करता है |माँ जीवन के हर शेत्र मे हमारी द्रश्य और अद्रश्य दोनों रूप मे प्रेरणा का स्त्रोत बनी रहती है |
हम माँ के संबल को हर क्षण महसूस करते है | हमें बचपन से ही माँ से सारे संस्कार प्राप्त होते हैं और उनके कारण हम कभी किसी गलत कार्य की ओर प्रेरित होने से बच जाते हैं | माँ का प्यार दुलार एक ऐसा अमूल्य अहसास है जो हमें हमेशा बांधे रखता है |
जीवन मैं माँ का सपना बच्चो को आगे से आगे बड़ते हुए देखना है| मेरा ऐसा मानना है क़ि ईश्वर ने अपना प्रतिरूप माँ को बना कर इस धरती पर भेजा है जो हर प्रकार से हमारी सहायता करती है | माँ अपना अविरल प्यार घर परिवार पर लुटाती रहती है | माँ के प्यार से बढकर इस संसार मैं कुछ भी नहीं है |
जब कही हमें हताशा या निराशा होती है तो माँ का धेर्य और सयम भरा चेहरा हमारे द्रष्टि पटल पर उभरता है और हम एक नए जोश के साथ अपने माता पिता के सपनो को पूरा करने के लिए कठिन परिश्रम करते हैं | माँ की मन्नते और दुआएं हमें हर शेत्र मैं सफलता के शिखर पर पहुंचा देती हैं | माँ हमारी हर कठिनाई, दुःख और परेशानी को बड़े ही सहज ढंग से हल कर देती है | माँ की प्रेरणा से ही हम आगे और आगे बड़ते रहते हैं |
जिस प्रकार मोमबत्ती स्वयं जल कर भी हमें प्रकाशवान करने का उद्दश्य रखती है उसी प्रकार माँ हमारे साये की तरह हमारी हर विपरीत परिस्थिति मैं साथ देती है | इसका अविस्मरनीय एवं जीवंत उद्धारण जो मेरे जीवन से जुड़ा हुआ है कुछ इस प्रकार है |
आई . आई. टी के ठीक एक दिन पहले जब मैं सपरिवार कोटा से परीक्षा देने अपने घर जयपुर जा रही थी तब हमारी कार की एक ट्रक से भिडंत हो गई और उसमें ना सिर्फ मैंने अपनी दादी को खो दिया बल्कि माँ की हालत गंभीर थी और पापा को भी भयंकर चोटें आई थी |इतनी दर्दनाक बेहोशी में बल्कि मरणासन्न स्थिति मैं भी मेरे माता पिता ने मुझे अपनी परीक्षा देने को कहा |
अंत मैं बस ईश्वर को उनके इस अमूल्य उपहार के लिए धन्यवाद करना चाहूंगी और अपना पहला लेख अपने माता पिता को समर्पित करना चाहती हूँ|

मन को एक सुखद संतोष,
से भर देती है यह भावना , कि
कोई सदा है हमारे पास,
हमारी हर उलझन सुलझाने को,
जीवन के सारे अच्छे - बुरे अनुभव
बाटने को...
मन को सुखद संतोष से
भर देती है यह भावना,
कि कोई है जीवन कि हर सुबह को
आशाओ और खुशियों की
किरणों से झिलमिलाने के लिए,
कोई, जिसका कोमल ह्रदय
सदा प्रयत्नरत रहता है परिवार की
सुख, शांति और प्रसन्ता के लिए...
मन को सुखद संतोष से
भर देती है यह भावना की
माँ तुम सदा रहोगी मेरे पास,
अपने ममता भरे स्पर्श से
जीवन की राहें आसान करने के लिए
अपने स्नेह और विश्वास का कोष हमेशा यूं ही लुटाने के लिए...



--गीतांजली चुघ

Wednesday, October 26, 2011

कोई बिरला विष खाता है

जीवन में सुख तो सभी भोगते हैं| आनंद लेते हैं, इश्वर की कृपा मानते हैं जब जीवन खुशियों से भरा होता है| सभी दूसरों कि खुशियों के साक्षी होना चाहते हैं| जो भी संसार में सुन्दर है, सुखकर है, उसके अस्तित्व की सराहना करते हैं| पर कम ही ऐसे जन होते हैं जो दुःख भोगना जानते हैं| जो कठिन परिस्थितियों में भी मुस्करा कर इस जीवन रूपी कहानी के एक हर खंड का मज़ा लेते हैं, और जीवन को सही मायने में जीते हैं| आसमान एक ही होता है, कभी बिलकुल साफ़, उजाला हुआ तो कभी काले बादलों से घिरा रहता है; जिहने सच में उड़ना पसंद हो, उन्हें दोनों ही स्थितियों में आकाश उतना ही आकर्षक लगता है| उड़ान में निश्चित ही कुछ
सहज और कुछ विषम मोड़ आयेंगे पर दोनों को ही बाहें फैलाये जो लोग अपना लें, वो कम ही होते हैं| कहते हैं, भगवान् उतनी ही परीक्षा लेते हैं जितना व्यक्ति में बल होता है| जिसका जीवन सुकुमार फूलों से भरा हुआ हो, वो जीवन के कितने ही पहलुओं से अनजान रह जाता है, पर जिसके जीवन में "विष आए" वो बड़ा ही भाग्यवान है; उसने संसार का सही अर्थों में भोग कर लिया और और विष जैसी कीमती वस्तु को पा लिया, वो बड़ा ही धनवान और संपन्न हो गया| सुख तो सभी पाते हैं, पर जो दुःख पा के भी जी लिए ऐसे मनोबली व्यक्तियों का जीवन सच में साकार हो जाता है|



कोई बिरला विष खाता है!

मधु पीने वाले बहुतेरे,
और सुधा के भक्त घनेरे,
गज भर की छातीवाला ही विष को अपनाता है!
कोई बिरला विष खाता है!

पी लेना तो है ही दुष्कर,
पा जाना उसका दुष्करतर,
बडा भाग्य होता है तब विष जीवन में आता है!
कोई बिरला विष खाता है!

स्वर्ग सुधा का है अधिकारी,
कितनी उसकी कीमत भारी!
किंतु कभी विष-मूल्य अमृत से ज्यादा पड़ जाता है!
कोई बिरला विष खाता है!

--हरिवंश राय बच्चन

Sunday, September 25, 2011

बचपन

बचपन की कितनी ऐसी यादें होती हैं जो अनजाने ही मन में इस तरह घर कर लेती हैं कि कितने भी साल बीत जाएँ, कितने भी मौसम बदलें पर ये यादें कभी धुंधली नहीं पड़ती| कुछ ऐसी ही यादों को आइये आज फिर से जी लें| माँ कि आवाज़ में सुना हुआ वो पहला गीत, वो प्यारी सी लोरी, इस दुनिया कि सबसे मधुर धुन! उस वक़्त भले ही एहसास न हुआ हो, पर आज ये ज़रूर लगता है कि वो रात बड़ी खुशनसीब थी जब तकिये कि जगह माँ कि गोद थी और आस-पास कि चेहेलपहल कि जगह कानों में वो सुन्दर शब्द पड़ते थे| पहला नगमा माँ के नाम|


सो जा चंदा , राजा सो जा
चल सपनों में चल
नींद कि परियाँ पहन के आई , पैरों में पायल
तुझको अपने नरम परों पर लेके जायेंगी
सोने का इक देस है जिसकी सैर कराएंगी

धरती से कुछ दूर कहीं सात समंदर पार
आकाशों के बीच है सपनों का संसार
वोह ज़मीन है प्यार की वहां सिर्फ प्यार है
मेरे चाँद जा वहां , तेरा इंतज़ार है
सो जा चंदा , राजा सो जा
चल सपनों में चल
नींद की परियाँ पहन के आई , पैरों में पायल
तुझको अपने नरम परों पर लेके जायेंगी
सोने का इक देस है जिसकी सैर कराएंगी|
~राहत इन्दोरी

यादों का कारवां बढ़ चलता है स्कूल की ओर| कुछ सबसे पहले पढ़ी हुई, अनमने ढंग से रटी हुई कवितायें| जिनका अर्थ ना उस समय समझ में आया था, और ही समझने की आवश्यकता थी| उस वक़्त तो बस दुनिया एक सुन्दर सपना थी जहाँ आँगन में एक पेड़ था और उस पेड़ पर एक झूला, घर से आवाज़ देती माँ थी और मैदान से बुलाते कुछ दोस्त|


मेले में जाते तो रावण को जलता देख खुश हो लेते थे, उस समय 'बुराई पर अच्छाई की जीत' सिर्फ कहने में अच्छा लगता था; इस बात को ठीक से समझा किसने था? गुब्बारे और फूल दुनिया की सभी रंग बटोरे हुए, कितने सुन्दर मालूम पड़ते थे| और वहीँ अपनी गेंद सबसे कीमती चीज़ हुआ करती थी|


बारिश हुई तो कितनी बेफिक्री से भीग जाया करते थे; कपड़े-जूते मैले होने की चिंता कहाँ थी? जो माँ अपने हाथों से खिला दे, वो खाना कितना स्वादिष्ट हुआ करता था, कहीं बाहर जाकर खाने की इच्छा कहाँ थी| उस बचपन को एक सलाम|




यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता

तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे|

~सुभद्राकुमारी चौहान



अब मौसम बदल चुका है, बचपने का सूरज कुछ कम रोशन है, पर ये यादें रौशनी नहीं, हवा की तरह हैं| कहीं भी, कभी भी, हमेशा साथ होती हैं| कुछ लम्हे बिताइए उस गुज़रे वक़्त की यादों के साथ, और चेहरे पर आई हुई उस मुस्कान के साथ सफ़र तय कीजिये यादों के गाँव का!

Thursday, September 22, 2011

दोराहा



यह जीवन इक राह नहीं
एक दोराहा है


पहला रस्ता
बहुत सहेल है
इसमें कोई मोड़ नहीं है
यह रस्ता
इस दुनिया से बेजोड़ नहीं है
इस रस्ते पर मिलते हैं
रीतों के आँगन
इस रस्ते पर मिलते हैं
रिश्तों के बंधन
इस रस्ते पर चलने वाले
कहने को सब सुख पाते हैं
लेकिन
टुकड़े टुकड़े होकर
सब रिश्तों में बट जाते हैं
अपने पल्ले कुछ नहीं बचता
बचती है
बेनाम सी उलझन
बचता है
साँसों का ईंधन
जिसमे उनकी अपनी हर पहचान
और उनके सारे सपने
जल बुझते हैं
इस रस्ते पर चलने वाले
खुद को खो कर जग पाते हैं
ऊपर ऊपर तो जीते हैं
अन्दर अन्दर मर जाते हैं.


दूसरा रस्ता
बहुत कठिन है
इस रस्ते मैं
कोई किसी के साथ नहीं है
कोई सहारा देने वाला हाथ नहीं है
इस रस्ते में धूप है
कोई छाओं नहीं है
जहाँ तसल्ली भीख में दे दे कोई किसी को
इस रस्ते में
ऐसा कोई गाँव नहीं है
यह उन लोगों का रस्ता है
जो खुद अपने तक जाते हैं
अपने आप को जो पाते हैं
तुम इस रस्ते पर ही चलना.


मुझे पता है
यह रस्ता आसान नहीं है
लेकिन मुझको यह ग़म भी है
तुमको अब तक
क्यों अपनी पहचान नहीं है|

~जावेद अख्तर

Friday, September 9, 2011

बूँदें

आज फिर बारिश हो रही है| घरों की छत से गिरती पानी की धारा मचलती हुई सूखी धरती की प्यास बुझाने जा रही है| पत्तों पर गिरी कुछ बूंदे बादल के छंटने का और सूरज की रोशनी का इंतज़ार कर रही हैं| सूरज की रोशनी उन बूंदों को चमक और इन्द्रधनुषी रोशनी से खूबसूरत बनाती है पर इसके लिए उन किरणों को अपना अस्तित्व खो कर सात रंगों में बँटना पड़ता हैं | दूसरों के लिए इतनी बड़ी कुर्बानी!! क्यों? कभी कभी मैं सोचता हूँ

कि क्या किरणें बूंदों में जाने से पहले डरती होंगी?

जब मैं छोटा था तो सोचता था की बादल में पानी कहाँ से आता है? पहले लोगों ने बताया की भगवान उनमे पानी भरते हैं| थोड़ी उम्र बढ़ी तो लोगों ने बोला की बादल में पानी सागर से आता है| पहली बार जब समुद्र में दूर क्षितिज को गौर से देखा तो सोचा "पानी भरने बादल वहां जाते होंगे| मैंने उन्हें पानी भरते नहीं देखा; लोग तो बहुत कुछ बोलते हैं,कैसे विश्वास करूँ उन पर? हाँ, शायद क्षितिज ही बादल को पानी देता है| क्या बादल को आता देख सागर डरता होगा?"

मैं देख रहा हूँ गिरती बूंदों को| तेज़ हवा के झोंकों में बहुत शक्ति होती है| हवा के झोंकें गिरती बूंदों को अपने साथ ले जा रहे हैं; मानो इन बूंदों ने अपना बुद्धि-विवेक खो दिया हो| दुनिया उगते सूरज को प्रणाम करती है; शक्ति की पूजा हम सब करते हैं| बेचारी बूँदें कैसे ना मानें बलवान हवा की बात को? हम भी तो मानते हैं, अपना बुद्धि-विवेक खो कर| क्या बूंदों को चंचल हवाओं को देख कर डर लगता होगा?

बरसाती पानी पत्थरों के मध्य अपने जाने का रास्ता ढूँढ ही लेता है| हज़ारों छोटी-छोटी नालियों से वो पानी बहता है; अविरल,कोई थकान नहीं| शायद ये पानी सागर में जा मिलेगा| सागर से मिलने की चाह में इन धाराओं ने मज़बूत चट्टानों से भी अपना रास्ता निकाल लिया है| पत्थरों के गर्भ को चीर कर भी अपना मार्ग बनाया है| ऐसी ही किसी धारा में बच्चे कागज़ की नाव तैरा रहे हैं| दूर खड़ा एक बच्चा प्रसन्न है| उसकी नाव सबसे दूर गई है| बाकी बच्चे मायूस होकर अपनी नावों को देख रहे हैं, जो शुरुआत में ही डूब गयीं| खुश होता बच्चा अज्ञानी है,मूर्ख है| उसकी नौका उससे दूर जा रही है और वह इसे अपनी जीत मान कर खुश हो रहा है| सोचता हूँ, क्या चट्टानें महत्त्वाकांशी धाराओं को आते देख डरती होंगी?

मैं भी डरता हूँ अपने भविष्य से| जीवन के दुःख और परेशानियाँ दूर से बहुत बड़े लगते हैं| पर पास आने पर हमारे अन्दर भी उन्हें झेलने की ताकत आ जाती है| जब तक मैं अपनी परिभाषा में सही हूँ, तब तक मुझे डरने की कोई ज़रूरत नहीं है|

बारिश अभी भी रुकी नहीं है!

~हर्षवर्धन

Sunday, July 24, 2011

कृष्ण कि चेतावणी









वर्षों तक वन में घूम घूम, बाधा विघ्नों को चूम चूम

सह धूप घाम पानी पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर
सौभाग्य न सब दिन होता है, देखें आगे क्या होता है
मैत्री की राह दिखाने को, सब को सुमार्ग पर लाने को
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को
भगवान हस्तिनापुर आए, पांडव का संदेशा लाये
दो न्याय अगर तो आधा दो, पर इसमें भी यदि बाधा हो
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रखो अपनी धरती तमाम
हम वहीँ खुशी से खायेंगे, परिजन पे असी ना उठाएंगे
दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशीष समाज की न ले सका
उलटे हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य साधने चला
जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है
हरि ने भीषण हुँकार किया, अपना स्वरूप विस्तार किया
डगमग डगमग दिग्गज डोले, भगवान कुपित हो कर बोले
जंजीर बढ़ा अब साध मुझे, हां हां दुर्योधन बाँध मुझे
ये देख गगन मुझमे लय है, ये देख पवन मुझमे लय है
मुझमे विलीन झनकार सकल, मुझमे लय है संसार सकल
अमरत्व फूलता है मुझमे, संहार झूलता है मुझमे
भूतल अटल पाताल देख, गत और अनागत काल देख
ये देख जगत का आदि सृजन, ये देख महाभारत का रन
मृतकों से पटी हुई भू है, पहचान कहाँ इसमें तू है
अंबर का कुंतल जाल देख, पद के नीचे पाताल देख
मुट्ठी में तीनो काल देख, मेरा स्वरूप विकराल देख
सब जन्म मुझी से पाते हैं, फिर लौट मुझी में आते हैं
जिह्वा से काढती ज्वाला सघन, साँसों से पाता जन्म पवन
पर जाती मेरी दृष्टि जिधर, हंसने लगती है सृष्टि उधर
मैं जभी मूंदता हूँ लोचन, छा जाता चारो और मरण
बाँधने मुझे तू आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है
यदि मुझे बांधना चाहे मन, पहले तू बाँध अनंत गगन
सूने को साध ना सकता है, वो मुझे बाँध कब सकता है
हित वचन नहीं तुने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना
तो ले अब मैं भी जाता हूँ, अंतिम संकल्प सुनाता हूँ
याचना नहीं अब रण होगा, जीवन जय या की मरण होगा
टकरायेंगे नक्षत्र निखर, बरसेगी भू पर वह्नी प्रखर
फन शेषनाग का डोलेगा, विकराल काल मुंह खोलेगा
दुर्योधन रण ऐसा होगा, फिर कभी नहीं जैसा होगा
भाई पर भाई टूटेंगे, विष बाण बूँद से छूटेंगे
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे, वायस शृगाल सुख लूटेंगे
आखिर तू भूशायी होगा, हिंसा का पर्दायी होगा
थी सभा सन्न, सब लोग डरे, चुप थे या थे बेहोश पड़े
केवल दो नर न अघाते थे, धृतराष्ट्र विदुर सुख पाते थे
कर जोड़ खरे प्रमुदित निर्भय, दोनों पुकारते थे जय, जय .

रामधारि सिंह दिनकर

Saturday, July 16, 2011

एक बूँद

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से।
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी।।
सोचने फिर फिर यही जी में लगी।
आह क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी।।

दैव मेरे भाग्य में क्या है बढ़ा।
में बचूँगी या मिलूँगी धूल में।।
या जलूँगी गिर अंगारे पर किसी।
चू पडूँगी या कमल के फूल में।।

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा।
वह समुन्दर ओर आई अनमनी।।
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला।
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।।

लोग यों ही है झिझकते, सोचते।
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर।।
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें।
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।।


-अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

Tuesday, July 12, 2011

मौसम

हवा में बसी है आज एक नयी खुशबू
तितलियों सा हसीन है मौसम
रंग हैं,हरियाली है,लगता है
पतंगों का मौसम है|

ये दिन जीवन का सबसे बेहतरीन तो नहीं
कई काम अभी भी अधूरे हैं,
कई लोग अभी भी रूठे हैं
पर आज खुशियाँ बिखरी हैं हर तरफ,जैसे
फूलों का मौसम है|

रंग तो हमेशा सुहाते थे मन को
आज जी चाहता है उन्हें ओठ लूँ तन पर
कारण तो जानूं ना,पर लगता है
होली का मौसम है|

दोपहर थी तो सूरज की तपिश भी भीनी सी लगी
रात आयी है तो
बिखरी चांदनी भी मनभावन है, लगता है
खुशदिली का मौसम है

वो पेड़ जो झेल रहा था सर्दी-गर्मी की मार
आज नए फूल खिले उस पर,
तो बड़ी विनम्रता से अर्पण किया उसने उन्हें अपने स्रोत पर
ये धरती भी रंगीन हो झूम उठी,आज
कृतज्ञ होने का दिन है,मानो
बसंत का मौसम है!

Wednesday, July 6, 2011

आँखें बहुत सी कहानियां सुनाती हैं

आँखें बहुत सी कहानियां सुनाती हैं,
दादी-नानी के किस्सों से कम दिलचस्प नहीं;
हर पल एक नयी दास्तान
कभी शरारती,नटखट,गुदगुदाने वाले किस्से
तो कभी यूँ ही संजीदा हो जाती हैं
आँखें बहुत सी कहानियां सुनाती हैं,

और न जाने कितने मौसम समेत रखे हैं इन्होने खुद में
कभी बसंती हवाओं सी इतराती, मस्त अदाएं;
तो कभी ज्येष्ठ की धुप सी सख्त हो जाती हैं;
और कभी सावन बटोरे नम हो जाती हैं;
आँखें बहुत सी कहानियां सुनाती हैं,

दिल का शीशा बन बैठती हैं ये आँखें
सारा हाल बयां कर जाती है;
कभी प्यार बरसाती हैं पर
अगर रूठ जाये तो एक झलक को भी तरसाती हैं
कभी-कभी आंसुओं के साथ हो जाती हैं
तो ढलते सूरज कि लालिमा लिए नज़र आती हैं;
आँखें बहुत सी कहानियां सुनाती हैं|


-ऐश्वर्या तिवारी

Monday, June 20, 2011

उड़ान

आदत उस परवाज़ की पड़ी है जिसके कुछ पार भी नहीं,
वहाँ जहाँ का सफ़र मिले तो चाहूँ मैं घर-बार भी नहीं,
वहाँ जहाँ से जहाँ खिलौने जैसा लगता है देखो तो,
वहाँ जहाँ होने को हो फिर पंखों की दरकार भी नहीं.

कच्ची किरणें सोख जहाँ अम्बर कुछ भूना चाह रहा हो,
घटता – बढ़ता हुआ चाँद अब कद से दूना चाह रहा हो,
कभी अब्र का कोमल टुकड़ा उलझ गया पैरों में ऐसे,
जैसे बारिश बने बिना मिट्टी को छूना चाह रहा हो.

ख्वाबों के पंखों पर उड़ता-उड़ता रोज़ निकल जाता हूँ,
अरमानों का असर कि हो जो भी ज़ंजीर फिसल जाता हूँ,
नहीं अकेला पाता खुद को, खुद टुकड़ों में बिखर-बिखर कर
एक नयी मंजिल की कोशिश प्यास बने, मचल जाता हूँ.

ओस छिड़कती हुई भोर को पलकों से ढँक कर देखा है,
दिन के सौंधे सूरज को इन हाथों में रख कर देखा है,
शाम हुयी तो लाल-लाल किस्से जो वहाँ बिखर जाते हैं,
गयी शाम अपनी ‘उड़ान’ में मैंने वो चख कर देखा है.


-सत्यांशु सिंह

Sunday, June 12, 2011

भारत—एक लोकतंत्र या सोनियातंत्र?

आजकल की ताज़ा सुर्ख़ियों को देखकर मन में यह प्रशन आ ही जाता है | जिस निर्ममता से रामलीला मैदान में किये जा रहे सत्याग्रह का दमन हुआ वह शर्मनाक था | न जाने कितने ही  बूढ़े-बच्चे और महिलायें सभी ज़ख़्मी हुए मगर हमारी सरकार को तो जैसे परवाह ही नहीं | कहते हैं चोर की दाढ़ी में तिनका..अगर सरकार की नीयत में कोई खोट नहीं तो फिर छुपकर  रात के डेढ़ बजे, जब ज़्यादातर भारतीय चैन की नींद सो रहे होते हैं, 5000 पुलिसवालों को लेकर निहथ्थे लोगों पर वार करना कहाँ से जायज़ है ? इतना ही नहीं सूत्रों के अनुसार वहाँ लगे  को पुलिस ने सबसे पहले तोड़ डाला ताकि उनकी काली करतूत कहीं कैमरा पर  कैद न हो जाए| और तो और, मीडिया वालों  में से भी किसी को खबर नहीं की उस रात पंडाल के अन्दर वाकई हुआ क्या या फिर अपने पॉवर के बल पर मीडिया को भी खरीद लिया गया या दबा दिया गया| यहाँ बाबा की हालत अनशन से बिगड़ रही है पर सरकार बात करने तक को तैयार नहीं | मनमोहन सिंह भले ही कहने को इस देश के प्रधानमन्त्री हो मगर है तो वो श्रीमती सोनिया गाँधी (उर्फ़ Antonia) के हाथों ki कटपुतली | जहाँ आचार्य बालकृष्ण महाराज पर खुले आम नेपाली होने और फर्ज़ी पासपोर्ट  रखने के इलज़ाम लगाए जा रहे हैं वही सरकार यह भूल रही है की सोनिया गाँधी भी कोई मूल से भारतीय नहीं हैं | उनके बारे में जितना कम कहा  जाए  उतना ही बेहतर | जो सरकार खुद अपनी अधिकतम constituencies में cm सिर्फ ईसाईयों को चुने और  परिवर्तित ईसाईयों के लिए सभाओं में सीट आरक्षित रखे, ऐसी सरकार का दूसरों के आन्दोलन को सांप्रदायिक ठहराना ठीक नहीं | अगर कुछ समय के लिए हम ये मान भी लें कि बाबा और अन्ना हजारे का अनशन एक राजनैतिक खेल है तो भी उसमे सभी जाति-धर्म के   लोग शामिल तो हैं | सिर्फ एक तमाशा खड़ा करने के लिए लोग अपने प्राण त्यागने को तैयार नहीं होते | जब सारी जनता लाचार और बेबस हो और सारी ताकत बस एक ही इंसान के हाँथ में हो तब अवश्य ही भारत एक सोनियातंत्र प्रतीत होता है, जहाँ बस वही होता है जो सोनिया चाहती है..और आम आदमी बस वही देख पाता है जो वह दिखाना चाहती है | लोगों को कुचला जा सकता है पर उनके विचारों और को नहीं | बस यही आशा है की यह आन्दोलन एक आज़ादी की जंग में तबदील हो और भारत वास्तविक रूप से आज़ाद लोकतंत्र बन पाए, ऐसी तानाशाही  और वंशवाद से मुक्ति पाकर… 


गौर करें: इस लेख में मैंने सिर्फ अपने विचार प्रस्तुत किये हैं और सभी इससे सहमत हो यह ज़रूरी नहीं..आप भी अपनी सोच हमसे बाटें..अपने सरकार और देश में व्याप्त भ्रष्टाचार सम्बंधित चौंका देने वाली बातें जानने के लिए इस साईट के सारे लेख ज़रूर पढ़ें:

Saturday, May 7, 2011

माँ


वैसे तो कुछ रिश्तो से हमारा हर पल का नाता होता है, फिर भी शायद आज का दिन माँ को समर्पित किया गया है, ताकि हम उनसे वो सब कह सके जो रोज़ की भागा-दौर में कहना भूल जाते है. 


तेरी
 उँगलिओ के स्पर्श को
जो चलती थी मेरे बालो मे

तेरा
वो चुम्बन
जो अकसर  करती थी
तुम मेरे गालो पे

वो
स्वादिष्ट पकवान
जिसका स्वाद
नही पहचाना मैने इतने सालो मे
वो मीठी सी झिडकी
वो प्यारी सी लोरी
वो रूठना - मनाना
और कभी - कभी
तेरा सजा सुनाना
वो चेहरे पे झूठा गुस्सा
वो दूध का गिलास
जो लेकर आती तुम मेरे पास

मैने पिया कभी आँखे बन्द कर
कभी गिराया तेरी आँखे चुराकर
 आज कोई नही पूछता ऐसे
तुम मुझे कभी प्यार से
कभी डाँट कर खिलाती थी जैसे

Monday, May 2, 2011

जनतंत्र का जन्म

                                                      --रामधारी सिंह "दिनकर"



Wednesday, April 27, 2011

खटमल जी, कब जाओगे??

२ ग्राम का प्राणी क्या-क्या कर सकता है, इसका अनुभव अपने १९ साल के गौरवशाली इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ. आजकल एक गीत काफ़ी मन को भा गया है. दो पंक्ति आपके लिए,"मुझे नींद न आये, मुझे चैन न आये". प्यार-मुहब्बत से तो अब उम्मीद ही नहीं रही. ये पंक्तियाँ मैं अपने प्यारे खटमलों को समर्पित करता हूँ जिनके साथ मैं पिछले २ महीनों से "लिव इन" रिलेशनशिप में रह रहा हूँ.

और अब तो बात काफ़ी बढ़ गयी है. हम दोनों एक दूसरे को फूटी आँख भी नहीं सुहाते. हालाँकि इनका प्रेम सिर्फ़ मेरे लिए ही नहीं है, मेरे आस-पास वाले भी इनके  प्रेम की गंगा में मेरे जितनी ही डुबकियाँ लगाते हैं. खाने की मेज़ पर गपशप का विषय ही बदल गया है. कहाँ पहले तरुण कन्याओं के बारे में बातें होती थीं, अब वो खटमलों के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गयी हैं. कल मेरे पड़ोसी ने बताया कि  २ मेगापास्कल के दाब से खटमलों की मौत सुनिश्चित है. कीट-पतंगों को मारने के लिए जिस  ज़हर का प्रयोग किया जाता है, वो अब इनके प्रजनन में सहायता कर रहा है.
 मैंने भी काफ़ी शोध किया है. गूगल पर,"How to kill bed bugs?" ढूँढ़ा था. एक बार तो पूरे कमरे में गर्म पानी डाल दिया. मेरे अल्पविकसित भेजे ने दो सुन्दर निष्कर्ष दिए, जो नीचे प्रस्तुत हैं:

१. गर्म पानी से वो जल कर मर जायेंगे.
२. अगर बच गए तो डूब कर मर जायेंगे.

 इन सारे किन्तु-परन्तु के बाद भी खटमल मेरे खून को उतने ही प्यार से पी रहे हैं, जितना वो पहले पिया करते थे. पड़ोस के मिश्र जी रोज़ सोने से पहले किरासन तेल से जला कर मारते हैं. भगवान की लीला भी निराली है, खटमल दिन दुगनी रात चौगुनी गति से बच्चे पैदा करते हैं. भई, क्या ज़रूरत है, पहले से क्या कम हैं कि हर सुबह एक नयी सेना खड़ी  कर देते हैं.
 इन खटमलों ने काफ़ी अवसाद से भर दिया है. कभी-कभी तो लगता है इस नश्वर संसार को त्याग ही देना चाहिए. रुकिए, मिश्र जी दरवाज़े पर हैं, शायद कोई नयी तरकीब लेकर!!!

Tuesday, April 26, 2011

नर हो न निराश करो मन को

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।

संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।

                                             - मैथिलीशरण गुप्त

Saturday, April 23, 2011

राम और रहीम

****प्रस्तुत लेख हमारी पत्रिका "सारंग" से ली गयी है. सारंग को डाउनलोड करने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करे. ******


एक दिन मेरी एक दोस्त बड़े ही खुश मिजाज़ में मुझ से आ कर बोली,"चलो आज मंदिर जाना है,माँ ने कहा है"| ये सुन कर पहले तो मुझे कुछ हँसी सी आ गयी| पर उसका उत्साह देख लगा की इतनी सी तो बात है,क्या जाता है| सो चल दिए हम दोनों कॉलेज के पास के गाँव "ज़री" में एक छोटे से हनुमान मंदिर की ओर| ऐसा नहीं है कि मुझे मंदिर जाने से कोई आपत्ति है,हर आम भारतीय की तरह भगवान में विश्वास करना मेरे भी खून में रचा-बसा है| पर कॉलेज आने के बाद से मंदिर का नाम भी भूल सी गयी थी|
खैर, प्रेरणा जो भी हो, मंदिर में व्याप्त शांति का एहसास अलग सा था| तभी माँ की बातें याद आ गयी, और कुछ  मुस्करा कर यहाँ मैं हनुमान चालीसा की कुछ पंक्तियाँ याद कर दोहरा ही रही थी कि कानों में अज़ान गूंज पड़ी| ये हुई न बात! खड़े थे हम एक मंदिर में, हाथों में फूल और दिया लिए हुए, "जय श्री राम" की रट लगाते और वही सड़क के दूसरी ओर एक पुरानी मस्जिद में मौलवी साहब अल्लाह से सबकी रक्षा करने की दुआ मांग रहे थे| उस सड़क के दोनों ही छोर पर सर झुके थे| कुछ राम के लिए तो कुछ रहीम के आगे| बड़ी ही सौभाग्यशाली सड़क है ये! न जाने कितने वर्षों से इसी प्रकार से दोनों धर्मो के बीच सम्भाव की साक्षी बनी है ये| और हर सुबह-शाम अपने इतिहास में एक ओर पन्ना जोड़ लेती है जो हमें एक सीख दे जाता है, कि जब हम में से कुछ अयोध्या में मंदिर-मस्जिद की लड़ाई में अपना खून जला रहे थे, तब भी यहाँ आरती ओर अज़ान साथ-साथ गूंजे थे, ओर क्या शान से इस सड़क ने  हँसी उड़ाई होगी उन दुर्भाग्यशाली व्यक्तियों की, जो सरयू के तट पर हिंसा की आग में जले थे ओर अपनी भिड़ंत को धर्मं-युद्ध मान स्वयं को वीर समझ रहे थे| ये कहानी केवल ज़री की नहीं है; न जाने कितने ही ऐसी कसबे-कूचे हैं भारत में जिन्होंने धर्म-जात के भेद से ऊपर उठ कर सर्वजन-सम्भाव का शंखनाद किया है| पर हम में से ही कुछ ऐसे भी हैं जो इस छोटी सी सीख से कोसों दूर हैं| जो पढ़े-लिखे तो हैं बैरिस्ट्री, पर बचपन में माँ से सुनी हुई महात्मा बुद्ध ओर स्वामी विवेकानंद की कहानियों की सीख नहीं समझ पाए! क्या विडम्बना है!

यह सोचते हुए एक तरफ जहाँ मेरे मन में  जय श्री राम का अलाप संपन्न हुआ वहीँ मौलवी साहब ने भी अल्लाह-हु-अकबर कह ऊपर वाले के दरबार में शाम की हाजरी दर्ज की| अब संकटमोचन से विदा लिए चल दिए हम दोनों, वापस अपने घर की ओर|
लौटते हुए कुछ बदला तो नहीं था पर फिर भी नए रंग से रंगी हुई दिखीं आस-पास की गलियां| सचमुच बहुत से रंग हैं इस देश के, एक रंग ऐसा भी!

ऐश्वर्या तिवारी

Thursday, March 31, 2011

रंग जीवन के

हजारों की भीड़ में कोई क्यूँ अपना सा लगता है?. ऐसा क्यूँ लगता है की उस के सामने अपने हर दिल की हर वो बात बता दो, जो शायद खुद से भी करने पर डर लगता है? पता नहीं, पर हर किसी को जीवन के हर पल पर कोई न कोई ऐसा जरुर मिलता है जिसे हम अपना हमराज़ बना लेते है. अब ये निर्णय सही है या नहीं, वो बाद की बात है.



हर मनुष्य मेरी समझ से एक प्रकार का ही होता है. हर मनुष्य के अन्दर एक जैसी भावनायें ही होती है. और इन भावनाओ को चलाने के लिए दो सारथी हैं - दिल और दिमाग. जिस समय जो ज्यादा मजबूत होता है, हमारे कर्म भी उस अनुसार ही ढल जाते है. उदाहरण  के लिए, अगर कोई गंभीर किस्म का व्यक्ति जोर जोर से गाते मिले तो लोग उसे पागल समझेंगे. पर अगर हम इसे दुसरे नजरिये से देखे तो ऐसा मान सकते है कि वो व्यक्ति ने कुछ ऐसा हासिल कर लिया जो उसके दिल के बहुत करीब था और उस उसने अपनी ख़ुशी को  स्वतंत्र रूप से दिखने दिया. जहाँ कुछ लोग अपनी इन अमूल्य भावनाओ को दुनिया से छुपा कर रखते है वही कुछ लोग खुली किताब की तरह अपने को रखते है. मेरी राय में दोनों में कोई बुराई नहीं है. प्रथम अनुच्छेद में दर्शाया गया  "अपना"  यहाँ बताये गये पहली श्रेणी के लोगो के जीवन में ज्यादा महत्यपूर्ण होता है. 

ये अपना किसी भी रूप में आ सकता है- माता, पिता, भाई, दोस्त कैसा भी, कोई भी. पर जीवन की  कहानी में मजा तब आता है जब ये "अपना" कोई अजनबी होता हैं, जो अचानक से हमारे जीवन में घुसपैठ कर हमारा अजीज हो जाता है. हमें ऐसे घुसपैठीयो से सावधान रहना चाहिए क्यूंकि समय के साथ हमें उनकी आदत हो जाती है. जो आया है, उसे एक दिन जाना ही है, और इन "अपनों" का जाना अत्यधिक पीड़ादायक हो सकता है. 

खैर, लोग बदलते रहेंगे पर एक न एक "अपने" तो रहेंगे ही. 

आपके जीवन में कौन है आपके "अपने"???



Tuesday, March 15, 2011

हँसी

कभी भोली सी, कभी चंचल सी हँसी,
नन्हे से चहेरे पर खिलखिलती हुई हँसी,
कभी पहली बारिश सी भीगी सी हँसी,
कभी आखरी सांसो सी ढलती हुई हँसी,
सुबह की पहली किरण सी रोशन सी हँसी,
धुंधली शाम में घुलती तन्हाई सी हँसी,
दोस्तो के संग मौजो मे गूँजती हुई हँसी,
दुश्मनो में कभी कभी नज़र आती हँसी,
बचपन मे किलकरी सी लगती हँसी,
धीरे से अपना असर दिखती हँसी,
प्यार का इज़हार करती हुई हँसी,
इनकार मे भी शरमाती हुई हँसी,
खुशीओं मे हमेशा नज़र आती हँसी,
दुख मे भी साथ निभाती हँसी,
आसुओं के बीच जगमगाती हुई हँसी,
कितना भी अंधेरा हो..........
दिल को हमेशा नज़र आती हँसी....


-- शिशिर 



Wednesday, March 9, 2011

मनोरम दृश्य

बड़ा ही मनोरम दृश्य है | एक नदी का किनारा, चारों  ओर घने हरे-भरे पेड़ और चिड़ियों की चहचहाहट  के बीच पत्तियों से छन के आती चाँद की चंचल किरणे | कुछ बात है इस दृश्य में | नदी की निरंतर बहती धारा में चांदी सी चमकती चांदनी | जब बड़े-बड़े पत्थर नदी के बहाव को रोकते तो एक संघर्ष की गूँज सुने देती, दूर कहीं अपने घोंसलों को लौटते थके पक्षियों की मधुर वाणी से वातावरण में फैली उथल-पुथल का आभास होता है | परन्तु एक अलग सी शांति व्याप्त है इस दृश्य में | जहाँ हम जा सकते हैं अपने आस-पास की दुनिया से कोसों दूर; कुछ  क्षण के लिए केवल अपने साथ |



कितनी आसानी से नदी ने अपने भीतर समां रखी है एक अलग दुनिया | भांति-भांति के प्राणियों का कोलाहल तो ज़रूर है पर फिर भी एक समरसता है उस जीवन में | क्या कारण हो सकता है इसका?क्या कारण है की हम,पृथ्वी के सबसे विकसित  प्राणी, भी इस समरसता से कोसों दूर हैं? एक आवाज़ मुझे पुकारती है | कदाचित यही है उस प्रश्न का उत्तर | जितनी आवाजें,जितने विचार, उतने ही मत-भेद | मुझे  दुनिया से शिकायत नहीं है मुझे,क्यूंकि मैं भी एक हिस्सा हूँ इसी दुनिया की | पर आज इस वातावरण में फैली शान्ति को महसूस करके लगता है की विकास के पथ पर निरंतर अग्रसर होने की चाह में कुछ खो गया है हमसे; कुछ हमारा था  जो पीछे छूट गया है | हमे उसके खो जाने का एहसास तो है परन्तु उसे वापस पाने की चाह मर सी गयी है| देखा जाये तो एक व्यंग है जिसके प्रेषक भी हम हैं और हसी के  पात्र भी हम ही हैं!
 जो भी हो, आज इस माहौल में इन सभी विचारों को बहा दिया है मैंने इस नदी की धारा में और कुछ देर के लिए ही सही इस खोई हुई दुनिया का हिस्सा बन कर कुछ मीठी यादों से सजा लिया है अपने जीवन को!

--ऐश्वर्या तिवारी

Tuesday, March 8, 2011

हाय रे! दिनकर की पोथि ...

हाल के दिनों में मेरा झुकाव हिन्दी की तरफ बढ़ गया है | कारण तो स्पष्ट नहीं लेकिन जैसे की एक स्तंभ में, कल पढ़ रहा था - हिन्दी अपने अवसान में है ! आज कल देख कर मन पीडित हो जाता है इसकी दुर्दशा को |

 युवा पीढ़ी अपने आप को अँग्रेज़ी का चोला ओढ़ कर भले ही ' कूल ' दिखाए लेकिन इस तथ्य को कभी दरकिनार नहीं किया जा सकता की भारत की स्व-अभिव्यक्ति हिन्दी ही है | सिर्फ़ रेलवे स्टेशन्स पर और कुछ सरकारी दफ़्तरों में हिन्दी की महत्ता पर लिखे चाँद वाक्यों से मन तो बहल जाता है लेकिन घाव नहीं भरता | १४ सितंबर को हिन्दी दिवस पर अँग्रेज़ी अख़बारों से नदारद और हिन्दी अख़बारों में छपी एक संपादकिए से ज़्यादा स्थान हमने इस महान भाषा को देने ही नहीं दिया |

मुद्दा अंग्रेज़ी विरोधी होने का कतई नहीं है, वरन हिन्दी को उसका स्थान दिलाने का है | इस स्थिति के लिए हम क्या कम ज़िम्मेवार हैं ?? टीवी पत्रकारिता हो या प्रिंट मिडिया,गिरता स्तर सूचक है इस प्रश्न का- आख़िर क्यों जा रही है हिन्दी गर्त में | कक्षा आठवीं तक विषय में शामिल तो कर दिया लेकिन इसे अनिवार्य बनाने की पहल आज तक हमारे पदासिन नेताओं ने नहीं किया | आख़िर करें भी तो क्या

दिनकर और नीरज के साथ सहित्य भी चौपट हो गया | जो कुछ गिने-चुने बच गये, उन्होनें भी पापी पेट के लिए इसका परित्याग कर अंग्रेज़ी को अपना लिया! अवशेषों में अगर कुछ युवक प्रेरित भी हुए तो,उन्हें अपने तथा-कथित 'गेंग' से बहिष्कृत होने का डर ने जकर लिया | समाज और सत्ता की लड़ाई में हम अपने मातृभाषा को भूल गये....क्या विडंबना है !! सरकार ने प्रोत्साहन के नाम पर कुछ छात्रवृतियाँ शुरू तो करती हैं लेकिन नियती के रंग तो देखिए,उन पर भी हक विदेशी जमा लेते हैं | आख़िर हो भी क्यों ना , बदले में मिलती है उन्हे दो वर्ष का वीसा और हिन्दी के पतन पर शोध करने का मौका | अब इस परिवेश में हम कितनी भी सफाई दे दें , ग़ौर फ़रमाने लाइक बात यह है की हमने इस भाषा का गला घोंट कर रख दिया है ||

मैं इस पक्ष में नहीं हूँ की इससे ज़बर्दस्ती कार्य-चलन की भाषा बनाकर आने वाले पीढ़ियों के लिए,भाषा विचार की अभिव्यक्ति ना हो कर जटिल समस्या बन जाए | ज़रूरत इस बात है की आम जनता समझे,हिन्दी सिर्फ़ अष्टम सूची की भाषा ही नहीं,हमारे विचारों की गंगा है और स्तिथि एक ऐसे मोर पर ना पहुँचे जहाँ दिनकर की पोथि और सांस्कृत्यन की गठरी सिर्फ़ धूल फाँक कर रह जाए !!

बैंड- बाजा- बरात ;)

हमारे पास कितने किस्से-कहानियां  होते है बताने को. कुछ पुरानी यादें,  कुछ आस-पास की बातें,  कुछ अपनी, कुछ दुसरो की; हैं ना ??

चलियें बात करते है शादियों की. भारत में शादियाँ बहुत मजेदार होती है, रोमांचक कहना ज्यादा अच्छा होगा. तो शुरुआत करते है, जब किसी घर में लड़की/लड़का शादी के लायक होता है तब से. भारत के हर शहर, गाँव में कुछ "समाजसेवी" ऐसे होते है, जो शादी करने को अपनी जिम्मेदारी मानते है. "जोड़ियाँ तो ऊपर वाला बनाता है" ऐसा ये समाजसेवी बोलते है लेकिन जोड़ियों को मिलाते तो यही है. कोई ऐरा- गैरा "समाजसेवी" नहीं बन सकता, मेरी माँ अंतिम १० साल से शादियाँ करा रही है, लेकिन दुर्भाग्यवश १ भी हो नहीं पायी. इन समाजसेवियों के कुछ लक्षण होते है, जैसे ये झूठ सच की तरह बोलते है, लड़की वालो को लड़के की आमदनी में एक ० बढ़ा कर बताते है, और लडको को लड़की की सुन्दरता थोरा ज्यादा बढ़ा कर. ये जल्दी हार मानने वालों में से भी नहीं है, ये तब तक प्रयास करते है जब तक लड़का/लड़की की शादी ना हो जाये. दहेज़ वाले जगहों पर इनके  मोल-मोलाई वाली गुण भी दिखती है.

खैर चलो, शादी तय हो गयी .  जो लेना- देना था, वो भी हो गया. अब समय आया है, कार्ड छपवाने का. बहुत परेशानी होती है, किसका नाम देना है, किसका नहीं. बहन के ससुर जी का नाम, और देहरादून वाले चाचा का नाम देना है या नहीं. कभी कभी तो बेचारे प्रिंटिंग प्रेस वाले परेशान  हो जाते है, इस नाम के चक्कर में. क्यूंकि शादी परिवार की ब्रांडिंग पार्टी होती है, इसलिए परिवार के अच्छे लोगों के नाम पहले दिए जाते है और अंतिम में चुन्नू-मुन्नू तो होते ही है. एक बहुत ही लोकप्रिय वाक्य है जो ९०% कार्ड में लिखा होता है:
ना कोई फ़ोन, ना कोई बहाना
मेले चाचू की शादी में जलूल आना.
-चुन्नू, मुन्नू

फिर सारे सगे-सम्बन्धियों को फ़ोन करना, और तब आपको किसी और रिश्तेदार  से पता चलेगा की दिल्ली वाले जीजा जी को तो आप भूल ही गए. और जब आप उनको कुछ दिन देर से फ़ोन करेंगे तो वो अपने सैकरो  व्यस्तता बताएँगे. घबराइए मत, अंत में आपकी दीदी उनको मना  ही लेंगी.


शादी वाले घर में अजब माहौल  रहता है. १५-२० बच्चे लुका-छीपी  खेलते मिलेंगे, बाहर बैठक में बूढ़े-बुजुर्ग देश की वर्तमान समस्याओं पर  चर्चा करते मिलेंगे, कुछ किशोर जो शादी में जागरूक कार्यकर्ता रहते है वो समय निकाल कर सहवाग की बल्लेबाजी में खामियां ढूंढ़ते दिखेंगे. सबसे ज्यादा व्यस्त होती है महिलाएं.

 " तुमने नीरा दीदी की साड़ी देखी, मुझे भी वैसी ही साडी चाहिए फेरे वाले दिन के लिए", और बेचारा पति भरी  दोपहर में मार्केटिंग के लिए  निकल जाता है. "पूनम भाभी का गले का सेट देखी, दीदी, चांदी  का है वो और वो भी बिलकुल हल्का".

वैसे पुरुषों की बात भी उतनी ही अच्छी होती है. " शर्मा जी की खूब उपरी कमाई हो रही है, देखा नहीं, नयी गाड़ी ली उन्होंने." " सिंह साहब ने नया घर बनवाया भी तो जंगल में, बताइए सिन्हा जी कौन जायेगा वहां पर."

अब बारी आती है, बारात वाले दिन की. दुल्हे वाले की तरफ इस बात की  युद्ध  चलेगी  की  सहवाला   किसका बेटा बनेगा. कई लोग तो  विडियो रेकॉर्डिंग वाले को पैसे भी देते है, ताकि वो उनकी ज्यादा फोटो ले. दुल्हे के कुछ अति-उत्साहित  भाइयों और दोस्तों में नाचने का नशा चढ़ता है. (वो लोग चढाते है, आपने सुना होगा, "काफी देर से गला तर नहीं किया"). जूता चुराने का मजा तो सबको याद होगा. मेरे एक मित्र ने अपने भाई के शादी पे दुल्हन की दोस्तों  की जूतियाँ  चुरायी थी, क्यूंकि उन्होंने ने मित्र के भाई का जूता चुराया  था.  

लेकिन कुछ भी हो; भारत में शादी एक बहाना होती है, लोगो के मिलने जुलने का. यहाँ शादी सिर्फ दो लोगो के मिलने का ही मौका नहीं होता, बल्कि सारे परिवार, रिश्तेदारों का मिलने जुलने का, अपना सुख-दुःख बाँटने का भी मौका होता है. आज कल जब परिवार छोटे होते जा रहे है, तो ये और महत्वपूर्ण  हो गया है. ये एक मौका है जब बच्चे सबसे मिलते है और समझते है की कौन कौन  अपने है.

जो कुछ भी हो, अच्छा लगता है. याद कीजिये, आपके साथ आपके बचपन की जितनी यादें है, उनमे से एक कोई न कोई शादी जरूर होगी. है न??