आदत उस परवाज़ की पड़ी है जिसके कुछ पार भी नहीं,
वहाँ जहाँ का सफ़र मिले तो चाहूँ मैं घर-बार भी नहीं,
वहाँ जहाँ से जहाँ खिलौने जैसा लगता है देखो तो,
वहाँ जहाँ होने को हो फिर पंखों की दरकार भी नहीं.
कच्ची किरणें सोख जहाँ अम्बर कुछ भूना चाह रहा हो,
घटता – बढ़ता हुआ चाँद अब कद से दूना चाह रहा हो,
कभी अब्र का कोमल टुकड़ा उलझ गया पैरों में ऐसे,
जैसे बारिश बने बिना मिट्टी को छूना चाह रहा हो.
ख्वाबों के पंखों पर उड़ता-उड़ता रोज़ निकल जाता हूँ,
अरमानों का असर कि हो जो भी ज़ंजीर फिसल जाता हूँ,
नहीं अकेला पाता खुद को, खुद टुकड़ों में बिखर-बिखर कर
एक नयी मंजिल की कोशिश प्यास बने, मचल जाता हूँ.
ओस छिड़कती हुई भोर को पलकों से ढँक कर देखा है,
दिन के सौंधे सूरज को इन हाथों में रख कर देखा है,
शाम हुयी तो लाल-लाल किस्से जो वहाँ बिखर जाते हैं,
गयी शाम अपनी ‘उड़ान’ में मैंने वो चख कर देखा है.
-सत्यांशु सिंह
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