Thursday, March 31, 2011

रंग जीवन के

हजारों की भीड़ में कोई क्यूँ अपना सा लगता है?. ऐसा क्यूँ लगता है की उस के सामने अपने हर दिल की हर वो बात बता दो, जो शायद खुद से भी करने पर डर लगता है? पता नहीं, पर हर किसी को जीवन के हर पल पर कोई न कोई ऐसा जरुर मिलता है जिसे हम अपना हमराज़ बना लेते है. अब ये निर्णय सही है या नहीं, वो बाद की बात है.



हर मनुष्य मेरी समझ से एक प्रकार का ही होता है. हर मनुष्य के अन्दर एक जैसी भावनायें ही होती है. और इन भावनाओ को चलाने के लिए दो सारथी हैं - दिल और दिमाग. जिस समय जो ज्यादा मजबूत होता है, हमारे कर्म भी उस अनुसार ही ढल जाते है. उदाहरण  के लिए, अगर कोई गंभीर किस्म का व्यक्ति जोर जोर से गाते मिले तो लोग उसे पागल समझेंगे. पर अगर हम इसे दुसरे नजरिये से देखे तो ऐसा मान सकते है कि वो व्यक्ति ने कुछ ऐसा हासिल कर लिया जो उसके दिल के बहुत करीब था और उस उसने अपनी ख़ुशी को  स्वतंत्र रूप से दिखने दिया. जहाँ कुछ लोग अपनी इन अमूल्य भावनाओ को दुनिया से छुपा कर रखते है वही कुछ लोग खुली किताब की तरह अपने को रखते है. मेरी राय में दोनों में कोई बुराई नहीं है. प्रथम अनुच्छेद में दर्शाया गया  "अपना"  यहाँ बताये गये पहली श्रेणी के लोगो के जीवन में ज्यादा महत्यपूर्ण होता है. 

ये अपना किसी भी रूप में आ सकता है- माता, पिता, भाई, दोस्त कैसा भी, कोई भी. पर जीवन की  कहानी में मजा तब आता है जब ये "अपना" कोई अजनबी होता हैं, जो अचानक से हमारे जीवन में घुसपैठ कर हमारा अजीज हो जाता है. हमें ऐसे घुसपैठीयो से सावधान रहना चाहिए क्यूंकि समय के साथ हमें उनकी आदत हो जाती है. जो आया है, उसे एक दिन जाना ही है, और इन "अपनों" का जाना अत्यधिक पीड़ादायक हो सकता है. 

खैर, लोग बदलते रहेंगे पर एक न एक "अपने" तो रहेंगे ही. 

आपके जीवन में कौन है आपके "अपने"???



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