Saturday, April 23, 2011

राम और रहीम

****प्रस्तुत लेख हमारी पत्रिका "सारंग" से ली गयी है. सारंग को डाउनलोड करने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करे. ******


एक दिन मेरी एक दोस्त बड़े ही खुश मिजाज़ में मुझ से आ कर बोली,"चलो आज मंदिर जाना है,माँ ने कहा है"| ये सुन कर पहले तो मुझे कुछ हँसी सी आ गयी| पर उसका उत्साह देख लगा की इतनी सी तो बात है,क्या जाता है| सो चल दिए हम दोनों कॉलेज के पास के गाँव "ज़री" में एक छोटे से हनुमान मंदिर की ओर| ऐसा नहीं है कि मुझे मंदिर जाने से कोई आपत्ति है,हर आम भारतीय की तरह भगवान में विश्वास करना मेरे भी खून में रचा-बसा है| पर कॉलेज आने के बाद से मंदिर का नाम भी भूल सी गयी थी|
खैर, प्रेरणा जो भी हो, मंदिर में व्याप्त शांति का एहसास अलग सा था| तभी माँ की बातें याद आ गयी, और कुछ  मुस्करा कर यहाँ मैं हनुमान चालीसा की कुछ पंक्तियाँ याद कर दोहरा ही रही थी कि कानों में अज़ान गूंज पड़ी| ये हुई न बात! खड़े थे हम एक मंदिर में, हाथों में फूल और दिया लिए हुए, "जय श्री राम" की रट लगाते और वही सड़क के दूसरी ओर एक पुरानी मस्जिद में मौलवी साहब अल्लाह से सबकी रक्षा करने की दुआ मांग रहे थे| उस सड़क के दोनों ही छोर पर सर झुके थे| कुछ राम के लिए तो कुछ रहीम के आगे| बड़ी ही सौभाग्यशाली सड़क है ये! न जाने कितने वर्षों से इसी प्रकार से दोनों धर्मो के बीच सम्भाव की साक्षी बनी है ये| और हर सुबह-शाम अपने इतिहास में एक ओर पन्ना जोड़ लेती है जो हमें एक सीख दे जाता है, कि जब हम में से कुछ अयोध्या में मंदिर-मस्जिद की लड़ाई में अपना खून जला रहे थे, तब भी यहाँ आरती ओर अज़ान साथ-साथ गूंजे थे, ओर क्या शान से इस सड़क ने  हँसी उड़ाई होगी उन दुर्भाग्यशाली व्यक्तियों की, जो सरयू के तट पर हिंसा की आग में जले थे ओर अपनी भिड़ंत को धर्मं-युद्ध मान स्वयं को वीर समझ रहे थे| ये कहानी केवल ज़री की नहीं है; न जाने कितने ही ऐसी कसबे-कूचे हैं भारत में जिन्होंने धर्म-जात के भेद से ऊपर उठ कर सर्वजन-सम्भाव का शंखनाद किया है| पर हम में से ही कुछ ऐसे भी हैं जो इस छोटी सी सीख से कोसों दूर हैं| जो पढ़े-लिखे तो हैं बैरिस्ट्री, पर बचपन में माँ से सुनी हुई महात्मा बुद्ध ओर स्वामी विवेकानंद की कहानियों की सीख नहीं समझ पाए! क्या विडम्बना है!

यह सोचते हुए एक तरफ जहाँ मेरे मन में  जय श्री राम का अलाप संपन्न हुआ वहीँ मौलवी साहब ने भी अल्लाह-हु-अकबर कह ऊपर वाले के दरबार में शाम की हाजरी दर्ज की| अब संकटमोचन से विदा लिए चल दिए हम दोनों, वापस अपने घर की ओर|
लौटते हुए कुछ बदला तो नहीं था पर फिर भी नए रंग से रंगी हुई दिखीं आस-पास की गलियां| सचमुच बहुत से रंग हैं इस देश के, एक रंग ऐसा भी!

ऐश्वर्या तिवारी

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