Friday, September 9, 2011

बूँदें

आज फिर बारिश हो रही है| घरों की छत से गिरती पानी की धारा मचलती हुई सूखी धरती की प्यास बुझाने जा रही है| पत्तों पर गिरी कुछ बूंदे बादल के छंटने का और सूरज की रोशनी का इंतज़ार कर रही हैं| सूरज की रोशनी उन बूंदों को चमक और इन्द्रधनुषी रोशनी से खूबसूरत बनाती है पर इसके लिए उन किरणों को अपना अस्तित्व खो कर सात रंगों में बँटना पड़ता हैं | दूसरों के लिए इतनी बड़ी कुर्बानी!! क्यों? कभी कभी मैं सोचता हूँ

कि क्या किरणें बूंदों में जाने से पहले डरती होंगी?

जब मैं छोटा था तो सोचता था की बादल में पानी कहाँ से आता है? पहले लोगों ने बताया की भगवान उनमे पानी भरते हैं| थोड़ी उम्र बढ़ी तो लोगों ने बोला की बादल में पानी सागर से आता है| पहली बार जब समुद्र में दूर क्षितिज को गौर से देखा तो सोचा "पानी भरने बादल वहां जाते होंगे| मैंने उन्हें पानी भरते नहीं देखा; लोग तो बहुत कुछ बोलते हैं,कैसे विश्वास करूँ उन पर? हाँ, शायद क्षितिज ही बादल को पानी देता है| क्या बादल को आता देख सागर डरता होगा?"

मैं देख रहा हूँ गिरती बूंदों को| तेज़ हवा के झोंकों में बहुत शक्ति होती है| हवा के झोंकें गिरती बूंदों को अपने साथ ले जा रहे हैं; मानो इन बूंदों ने अपना बुद्धि-विवेक खो दिया हो| दुनिया उगते सूरज को प्रणाम करती है; शक्ति की पूजा हम सब करते हैं| बेचारी बूँदें कैसे ना मानें बलवान हवा की बात को? हम भी तो मानते हैं, अपना बुद्धि-विवेक खो कर| क्या बूंदों को चंचल हवाओं को देख कर डर लगता होगा?

बरसाती पानी पत्थरों के मध्य अपने जाने का रास्ता ढूँढ ही लेता है| हज़ारों छोटी-छोटी नालियों से वो पानी बहता है; अविरल,कोई थकान नहीं| शायद ये पानी सागर में जा मिलेगा| सागर से मिलने की चाह में इन धाराओं ने मज़बूत चट्टानों से भी अपना रास्ता निकाल लिया है| पत्थरों के गर्भ को चीर कर भी अपना मार्ग बनाया है| ऐसी ही किसी धारा में बच्चे कागज़ की नाव तैरा रहे हैं| दूर खड़ा एक बच्चा प्रसन्न है| उसकी नाव सबसे दूर गई है| बाकी बच्चे मायूस होकर अपनी नावों को देख रहे हैं, जो शुरुआत में ही डूब गयीं| खुश होता बच्चा अज्ञानी है,मूर्ख है| उसकी नौका उससे दूर जा रही है और वह इसे अपनी जीत मान कर खुश हो रहा है| सोचता हूँ, क्या चट्टानें महत्त्वाकांशी धाराओं को आते देख डरती होंगी?

मैं भी डरता हूँ अपने भविष्य से| जीवन के दुःख और परेशानियाँ दूर से बहुत बड़े लगते हैं| पर पास आने पर हमारे अन्दर भी उन्हें झेलने की ताकत आ जाती है| जब तक मैं अपनी परिभाषा में सही हूँ, तब तक मुझे डरने की कोई ज़रूरत नहीं है|

बारिश अभी भी रुकी नहीं है!

~हर्षवर्धन

1 comment:

Totz said...

ye to jana pehchana sa lag raha hai :)