Thursday, September 22, 2011

दोराहा



यह जीवन इक राह नहीं
एक दोराहा है


पहला रस्ता
बहुत सहेल है
इसमें कोई मोड़ नहीं है
यह रस्ता
इस दुनिया से बेजोड़ नहीं है
इस रस्ते पर मिलते हैं
रीतों के आँगन
इस रस्ते पर मिलते हैं
रिश्तों के बंधन
इस रस्ते पर चलने वाले
कहने को सब सुख पाते हैं
लेकिन
टुकड़े टुकड़े होकर
सब रिश्तों में बट जाते हैं
अपने पल्ले कुछ नहीं बचता
बचती है
बेनाम सी उलझन
बचता है
साँसों का ईंधन
जिसमे उनकी अपनी हर पहचान
और उनके सारे सपने
जल बुझते हैं
इस रस्ते पर चलने वाले
खुद को खो कर जग पाते हैं
ऊपर ऊपर तो जीते हैं
अन्दर अन्दर मर जाते हैं.


दूसरा रस्ता
बहुत कठिन है
इस रस्ते मैं
कोई किसी के साथ नहीं है
कोई सहारा देने वाला हाथ नहीं है
इस रस्ते में धूप है
कोई छाओं नहीं है
जहाँ तसल्ली भीख में दे दे कोई किसी को
इस रस्ते में
ऐसा कोई गाँव नहीं है
यह उन लोगों का रस्ता है
जो खुद अपने तक जाते हैं
अपने आप को जो पाते हैं
तुम इस रस्ते पर ही चलना.


मुझे पता है
यह रस्ता आसान नहीं है
लेकिन मुझको यह ग़म भी है
तुमको अब तक
क्यों अपनी पहचान नहीं है|

~जावेद अख्तर

2 comments:

Asmita Dixit said...

very nice post.. :)

Unknown said...

Literature of the kind that I see on 'Machaan' makes me proud to have Hindi as our national language. :)