Sunday, September 25, 2011

बचपन

बचपन की कितनी ऐसी यादें होती हैं जो अनजाने ही मन में इस तरह घर कर लेती हैं कि कितने भी साल बीत जाएँ, कितने भी मौसम बदलें पर ये यादें कभी धुंधली नहीं पड़ती| कुछ ऐसी ही यादों को आइये आज फिर से जी लें| माँ कि आवाज़ में सुना हुआ वो पहला गीत, वो प्यारी सी लोरी, इस दुनिया कि सबसे मधुर धुन! उस वक़्त भले ही एहसास न हुआ हो, पर आज ये ज़रूर लगता है कि वो रात बड़ी खुशनसीब थी जब तकिये कि जगह माँ कि गोद थी और आस-पास कि चेहेलपहल कि जगह कानों में वो सुन्दर शब्द पड़ते थे| पहला नगमा माँ के नाम|


सो जा चंदा , राजा सो जा
चल सपनों में चल
नींद कि परियाँ पहन के आई , पैरों में पायल
तुझको अपने नरम परों पर लेके जायेंगी
सोने का इक देस है जिसकी सैर कराएंगी

धरती से कुछ दूर कहीं सात समंदर पार
आकाशों के बीच है सपनों का संसार
वोह ज़मीन है प्यार की वहां सिर्फ प्यार है
मेरे चाँद जा वहां , तेरा इंतज़ार है
सो जा चंदा , राजा सो जा
चल सपनों में चल
नींद की परियाँ पहन के आई , पैरों में पायल
तुझको अपने नरम परों पर लेके जायेंगी
सोने का इक देस है जिसकी सैर कराएंगी|
~राहत इन्दोरी

यादों का कारवां बढ़ चलता है स्कूल की ओर| कुछ सबसे पहले पढ़ी हुई, अनमने ढंग से रटी हुई कवितायें| जिनका अर्थ ना उस समय समझ में आया था, और ही समझने की आवश्यकता थी| उस वक़्त तो बस दुनिया एक सुन्दर सपना थी जहाँ आँगन में एक पेड़ था और उस पेड़ पर एक झूला, घर से आवाज़ देती माँ थी और मैदान से बुलाते कुछ दोस्त|


मेले में जाते तो रावण को जलता देख खुश हो लेते थे, उस समय 'बुराई पर अच्छाई की जीत' सिर्फ कहने में अच्छा लगता था; इस बात को ठीक से समझा किसने था? गुब्बारे और फूल दुनिया की सभी रंग बटोरे हुए, कितने सुन्दर मालूम पड़ते थे| और वहीँ अपनी गेंद सबसे कीमती चीज़ हुआ करती थी|


बारिश हुई तो कितनी बेफिक्री से भीग जाया करते थे; कपड़े-जूते मैले होने की चिंता कहाँ थी? जो माँ अपने हाथों से खिला दे, वो खाना कितना स्वादिष्ट हुआ करता था, कहीं बाहर जाकर खाने की इच्छा कहाँ थी| उस बचपन को एक सलाम|




यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता

तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे|

~सुभद्राकुमारी चौहान



अब मौसम बदल चुका है, बचपने का सूरज कुछ कम रोशन है, पर ये यादें रौशनी नहीं, हवा की तरह हैं| कहीं भी, कभी भी, हमेशा साथ होती हैं| कुछ लम्हे बिताइए उस गुज़रे वक़्त की यादों के साथ, और चेहरे पर आई हुई उस मुस्कान के साथ सफ़र तय कीजिये यादों के गाँव का!

Thursday, September 22, 2011

दोराहा



यह जीवन इक राह नहीं
एक दोराहा है


पहला रस्ता
बहुत सहेल है
इसमें कोई मोड़ नहीं है
यह रस्ता
इस दुनिया से बेजोड़ नहीं है
इस रस्ते पर मिलते हैं
रीतों के आँगन
इस रस्ते पर मिलते हैं
रिश्तों के बंधन
इस रस्ते पर चलने वाले
कहने को सब सुख पाते हैं
लेकिन
टुकड़े टुकड़े होकर
सब रिश्तों में बट जाते हैं
अपने पल्ले कुछ नहीं बचता
बचती है
बेनाम सी उलझन
बचता है
साँसों का ईंधन
जिसमे उनकी अपनी हर पहचान
और उनके सारे सपने
जल बुझते हैं
इस रस्ते पर चलने वाले
खुद को खो कर जग पाते हैं
ऊपर ऊपर तो जीते हैं
अन्दर अन्दर मर जाते हैं.


दूसरा रस्ता
बहुत कठिन है
इस रस्ते मैं
कोई किसी के साथ नहीं है
कोई सहारा देने वाला हाथ नहीं है
इस रस्ते में धूप है
कोई छाओं नहीं है
जहाँ तसल्ली भीख में दे दे कोई किसी को
इस रस्ते में
ऐसा कोई गाँव नहीं है
यह उन लोगों का रस्ता है
जो खुद अपने तक जाते हैं
अपने आप को जो पाते हैं
तुम इस रस्ते पर ही चलना.


मुझे पता है
यह रस्ता आसान नहीं है
लेकिन मुझको यह ग़म भी है
तुमको अब तक
क्यों अपनी पहचान नहीं है|

~जावेद अख्तर

Friday, September 9, 2011

बूँदें

आज फिर बारिश हो रही है| घरों की छत से गिरती पानी की धारा मचलती हुई सूखी धरती की प्यास बुझाने जा रही है| पत्तों पर गिरी कुछ बूंदे बादल के छंटने का और सूरज की रोशनी का इंतज़ार कर रही हैं| सूरज की रोशनी उन बूंदों को चमक और इन्द्रधनुषी रोशनी से खूबसूरत बनाती है पर इसके लिए उन किरणों को अपना अस्तित्व खो कर सात रंगों में बँटना पड़ता हैं | दूसरों के लिए इतनी बड़ी कुर्बानी!! क्यों? कभी कभी मैं सोचता हूँ

कि क्या किरणें बूंदों में जाने से पहले डरती होंगी?

जब मैं छोटा था तो सोचता था की बादल में पानी कहाँ से आता है? पहले लोगों ने बताया की भगवान उनमे पानी भरते हैं| थोड़ी उम्र बढ़ी तो लोगों ने बोला की बादल में पानी सागर से आता है| पहली बार जब समुद्र में दूर क्षितिज को गौर से देखा तो सोचा "पानी भरने बादल वहां जाते होंगे| मैंने उन्हें पानी भरते नहीं देखा; लोग तो बहुत कुछ बोलते हैं,कैसे विश्वास करूँ उन पर? हाँ, शायद क्षितिज ही बादल को पानी देता है| क्या बादल को आता देख सागर डरता होगा?"

मैं देख रहा हूँ गिरती बूंदों को| तेज़ हवा के झोंकों में बहुत शक्ति होती है| हवा के झोंकें गिरती बूंदों को अपने साथ ले जा रहे हैं; मानो इन बूंदों ने अपना बुद्धि-विवेक खो दिया हो| दुनिया उगते सूरज को प्रणाम करती है; शक्ति की पूजा हम सब करते हैं| बेचारी बूँदें कैसे ना मानें बलवान हवा की बात को? हम भी तो मानते हैं, अपना बुद्धि-विवेक खो कर| क्या बूंदों को चंचल हवाओं को देख कर डर लगता होगा?

बरसाती पानी पत्थरों के मध्य अपने जाने का रास्ता ढूँढ ही लेता है| हज़ारों छोटी-छोटी नालियों से वो पानी बहता है; अविरल,कोई थकान नहीं| शायद ये पानी सागर में जा मिलेगा| सागर से मिलने की चाह में इन धाराओं ने मज़बूत चट्टानों से भी अपना रास्ता निकाल लिया है| पत्थरों के गर्भ को चीर कर भी अपना मार्ग बनाया है| ऐसी ही किसी धारा में बच्चे कागज़ की नाव तैरा रहे हैं| दूर खड़ा एक बच्चा प्रसन्न है| उसकी नाव सबसे दूर गई है| बाकी बच्चे मायूस होकर अपनी नावों को देख रहे हैं, जो शुरुआत में ही डूब गयीं| खुश होता बच्चा अज्ञानी है,मूर्ख है| उसकी नौका उससे दूर जा रही है और वह इसे अपनी जीत मान कर खुश हो रहा है| सोचता हूँ, क्या चट्टानें महत्त्वाकांशी धाराओं को आते देख डरती होंगी?

मैं भी डरता हूँ अपने भविष्य से| जीवन के दुःख और परेशानियाँ दूर से बहुत बड़े लगते हैं| पर पास आने पर हमारे अन्दर भी उन्हें झेलने की ताकत आ जाती है| जब तक मैं अपनी परिभाषा में सही हूँ, तब तक मुझे डरने की कोई ज़रूरत नहीं है|

बारिश अभी भी रुकी नहीं है!

~हर्षवर्धन